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इंदौर: गुंडाराज में तब्दील होता शहर, पुलिस की चाय ठंडी और चाकू गर्म

14 Feb 2025

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इंदौर: गुंडाराज में तब्दील होता शहर, पुलिस की चाय ठंडी और चाकू गर्म


Anam Ibrahim 

Journalist 

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"इंदौर में अब अपराधी गुस्सा नहीं करते, बस चाकू निकालते हैं। पुलिस मौके पर नहीं आती, बस बयान जारी करती है। और शरीफ आदमी? वह बस खून बहाकर ‘न्याय’ का इंतज़ार करता दिख रहा है!"


जनसम्पर्क Life

National Newspaper 

Input by....


Mukesh Singh 



इंदौर/मप्र: इंदौर अब शहर नहीं, अपराधियों का वर्कशॉप बन चुका है। कोई लोन की क़िस्त मांगता है, तो उसे चाकू की क़िस्त चुकानी पड़ती है। सड़कें सिर्फ रास्ते नहीं, अब ‘वारदात ज़ोन’ बन गई हैं। और पुलिस? वह हर घटना के बाद प्रेसनोट छापने की मशीन बन चुकी है। सवाल यह है कि शहर में कानून का राज है या गुंडों की पंचायत?




इंदौर अब शहर नहीं रहा, एक अखाड़ा बन गया है। कोई हाथ आजमा रहा है, कोई छुरा। कोई बुलेट पर बैठकर अपने आपको फिल्मी विलेन समझ रहा है, तो कोई सड़क पर खून बहाकर अपने दबदबे की मोहर लगा रहा है। और कानून? वह किसी कोने में मिमियाता हुआ गली के कुत्तों से भी ज़्यादा बेबस खड़ा है।


हवा में इत्र नहीं, अब बारूद की गंध घुल गई है। सड़कें महज़ रास्ते नहीं, बल्कि अपराध के मंच बन गए हैं, जहां नाटक रोज़ होते हैं, पर कोई दर्शक ताली नहीं बजाता। खौफ की इस नगरी में आज हम एक नया अध्याय पढ़ रहे हैं—एक बैंक की क़िस्त वसूली एजेंट को उसकी ड्यूटी का इनाम चाकू की नोक पर दिया गया।


“तू हमारे घर क्यों आया था?” – और फिर खंजर की बारिश

अब अपराधी इतने शरीफ हो गए हैं कि पहले सवाल करते हैं, फिर वार। "तू हमारे घर क़िस्त वसूलने क्यों आया था?" मानो घर कोई ताजमहल हो, जहां आम आदमी बिना सलामी दिए नहीं जा सकता। आदर्श नाम का यह बंदा अपनी नौकरी बजा रहा था, मगर हिमांशु शर्मा उर्फ़ लालू को यह नागवार गुज़रा। वह सालभर से अपने गुस्से की तलवार को धार दे रहा था और 6 फरवरी को मौके का इंतज़ार खत्म हुआ।


सड़क किनारे होटल के सामने खड़े आदर्श पर दोनो गुंडे ऐसे झपटे, जैसे बकरी पर भेड़िए। पहले गालियों की नमक-मिर्ची छिड़की गई, फिर थप्पड़-मुक्कों का पतीला चढ़ाया गया, और आखिर में चाकू का तड़का लगा दिया गया। सुनील मेढ़ा नामक बदमाश ने अपनी पैंट से चाकू निकाला और सीधे आदर्श के जिस्म पर वार कर दिया। चाकू जांघ और पिंडली में उतर गया, खून बहा, लेकिन यह कोई हिंदी फिल्म नहीं थी कि हीरो आखिरी वक्त पर बच जाए।


पुलिस: जो हमेशा पहुंचती है, लेकिन वक्त निकल जाने के बाद

आइए, अब पुलिस का रोल देख लेते हैं। घटना हुई, खून बहा, लोग इकट्ठा हुए, सोशल मीडिया पर पोस्टें डलीं, और तब जाकर पुलिस हरकत में आई। फिर वही रटी-रटाई स्क्रिप्ट— “वरिष्ठ अधिकारियों के निर्देशानुसार कार्यवाही जारी है।” पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी निर्देश तो खूब देते हैं, लेकिन अगर वे अपराधियों को भी ऐसे ही निर्देश देकर अपराध करने से रोक पाते, तो शहर की तस्वीर कुछ और होती।


खैर, मामला दर्ज हुआ, धरपकड़ शुरू हुई और 12 फरवरी को पुलिस को खबर मिली कि दोनों आरोपी सुपर कॉरिडोर पर संदिग्ध हालत में घूम रहे हैं। पुलिस ने उन्हें दौड़ाया, उन्होंने भागने की कोशिश की, मगर आखिर में पकड़े गए। उन्होंने भी बिना किसी झिझक के अपना अपराध कुबूल कर लिया—मानो कह रहे हों, "हां, साहब! हमने चाकू मारा, आप क्या कर लोगे?"


शहर में किसका राज? पुलिस का या गुंडों का?

अब सवाल यह नहीं है कि पुलिस ने उन्हें पकड़ा या नहीं। सवाल यह है कि यह शहर चल किसके इशारे पर रहा है? कभी यहां अहिल्या बाई होल्कर का राज था, आज लालू और सुनील का है। कभी यह शहर कारोबार का केंद्र था, आज यह अपराध का अड्डा बन चुका है।


यह सिर्फ एक घटना नहीं है, यह उस भयावह हकीकत का पर्दाफाश है, जिसे हम रोज़ देख रहे हैं लेकिन चुप हैं। चुप इसलिए कि अगली बारी हमारी हो सकती है। चुप इसलिए कि पुलिस के भरोसे हम रह नहीं सकते। चुप इसलिए कि हमें डर है—हमारे सामने जब कोई चाकू निकालेगा, तब हमारी चीख कौन सुनेगा?


अब शहर की हालत यह हो गई है कि सड़क पर चलते वक्त सिर्फ ट्रैफिक नहीं देखना होता, जेब में चाकू रखने वाले उन ‘गुंडों’ पर भी नजर रखनी होती है, जो कभी भी ‘तू हमारे घर क्यों आया था?’ कहकर वार कर सकते हैं। और फिर पुलिस आएगी, बयान लेगी, प्रेसनोट निकलेगा, लेकिन वह पहला चाकू हमेशा पहले ही मारा जा चुका होगा।


तो फिर क्या करें?

अब शहर में सवाल यह नहीं है कि अगला वार कौन करेगा। सवाल यह है कि हम कब तक सहेंगे? क्या कानून वाकई इतना लाचार है कि हर बार खून बहने के बाद ही हरकत में आएगा? या फिर हमें अपनी सुरक्षा खुद करनी होगी, क्योंकि पुलिस के भरोसे रहना अब वैसे ही है जैसे किसी बबूल के पेड़ से आम की उम्मीद करना।


इंदौर के इस नए गुंडाराज में, हर शरीफ आदमी एक नया आदर्श बनने के लिए खड़ा है, और हर सड़क पर कोई न कोई सुनील-लालू घूम रहा है। सिर्फ इस इंतज़ार में कि अगला शिकार कब मिलेगा। और हम? हम बस उम्मीद कर रहे हैं कि पुलिस इस बार समय पर पहुंचे, मगर अफ़सोस, वह कभी भी सही वक़्त पर नहीं आती।

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